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________________ ( २१ ) चन्द्रषि महत्तर आचार्य ने तो पंचसंग्रह की रचना की है और उसमें संग्रह किये गये अथवा गर्भित शतक, सप्ततिका, कषाय प्राभृत, सत्कर्म और कर्म प्रकृति - ये पाँचों ग्रन्थ चन्द्रर्षि महत्तर से पूर्व हो गये आचार्य की कृति रूप होने से प्राचीन हो हैं । यदि वर्तमान की रूढ मान्यता के अनुसार सप्ततिकाकार और पंचसंग्रहकार आचार्य एक ही होते तो भाष्य, चूर्णि आदि के प्रणेताओं के ग्रन्थों में जैसे शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों के नामों का साक्षी के रूप में उल्लेख किया गया है, वैसे ही पंचसंग्रह के नाम का उल्लेख भी अवश्य किया जाना चाहिए था । परन्तु ऐसा उल्लेख कहीं भी देखने में नहीं आया है । अतएव इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सप्ततिका के रचयिता पंचसंग्रहकार के बजाय अन्य कोई आचार्य ही हैं, जिनका नाम अज्ञात है और वे प्राचीनतम आचार्य हैं। ऐसी स्थिति में जब शतक की अन्तिम दो गाथाओं ( १०४ - १०५) सप्ततिका की मंगलगाथा और अन्तिम गाथा ( ७२ ) का मिलान करते हैं तो इस सम्भावना को बल मिलता है कि इन दोनों ग्रन्थों के संकलियता एक ही आचार्य हों । सप्ततिका और शतक की गाथाएँ इस प्रकार हैं (१) वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं सुयसागरस्स २) कम्मप्पवाय (३) जो जत्थ अपडिपुत्रो अत्थो अप्पागमेण बद्धोति । तं खमिऊण बहुसुया (४) बंधविहाण समासो रइओ तं बंध मोक्खणिउणा उक्त उद्धरणों में से जैसे सप्ततिका पूरेऊणं पूरेऊणं परिकहंतु ॥3 अप्प सुयमंदमइणाउ | पूरेऊणं परिकहेंति ।। १ सप्ततिका, गाथा - संख्या, १ ३ सप्ततिका, गाथा- संख्या ७२ दिट्ठिवायस्स 11 निस्संदमेत्ताओ | 2 Jain Education International की मंगलगाथा में इस प्रकरण २ शतक, गाथा - संख्या, १०४ शतक, गाथा - संख्या १०५ ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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