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: षष्ठ कर्मग्रन्थ
२१५ ___ अर्थात्-पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में वेदनीय कर्म के आठ भंग और शेष तेरह जीवस्थानों में चार भंग होते हैं तथा गोत्र कर्म के पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में सात भंग और शेष तेरह जीवस्थानों में से प्रत्येक में तीन भंग होते हैं। ___उक्त कथन का विशद विवेचन निम्न प्रकार है-वेदनीय कर्म के पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं अतः उसमें, १. असाता का बन्ध, असाता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, २. असाता का बंध, साता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, ३. साता का बन्ध, असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता, ४. साता का बन्ध, साता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, ५. असाता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, ६. साता का उदय और साता-असाता दोनों की सत्ता, ७. असाता का उदय और असाता की सत्ता और ८. साता का उदय तथा साता की सत्ता, ये आठ भंग होते हैं। किन्तु प्रारम्भ के तेरह जीवस्थानों में से प्रत्येक के उक्त आठ भंगों में से आदि के चार भंग ही प्राप्त होते हैं। क्योंकि इनमें साता और असाता वेदनीय इन दोनों का यथासम्भव बन्ध, उदय और सत्ता सर्वत्र सम्भव है। इसीलिये भाष्य गाथा में कहा गया है कि 'पज्जत्तगसन्नियरे अठ्ठ चउक्कं च वेयणियभंगा।'
वेदनीय कर्म के उक्त आठ भंगों को पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में गुणस्थानों की अपेक्षा इस प्रकार घटित करना चाहिये
पहला भंग--असाता का बंध, असाता का उदय और साता-असाता की सत्ता तथा दूसरा भंग-असाता का बंध, साता का उदय और साता-असाता की सत्ता, यह दो भंग पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाये जाते हैं। क्योंकि आगे के गुणस्थानों में असाता वेदनीय के बंध का अभाव है। तीसरा भंग
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