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________________ २१४ सप्ततिका प्रकरण होता है और न सत्ताविच्छेद ही होता है । निद्रा, निद्रा-निद्रा आदि पांच निद्राओं में से एक काल में किसी एक का उदय होता भी है और नहीं भी होता है । इसीलिये इन पाँच निद्राओं में से किसी एक का उदय होने या न होने की अपेक्षा से आदि के तेरह जीवस्थानों के दो भंग बतलाये हैं । -- परन्तु एक जो पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान है उसमें ग्यारह भंग होते हैं - ' एगम्मि भंगमेक्कारा' । क्योंकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में गुणस्थानों के क्रम से दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियों का बंध, उदय और सत्ता तथा इनकी व्युच्छित्ति सब कुछ सम्भव है । इसीलिये इस जीवस्थान में दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा ९९ भंग होने का संकेत किया गया है । इन ग्यारह भंगों का विचार पूर्व में दर्शनावरण के सामान्य संवेध भंगों के प्रसंग में किया जा चुका है। अतः पुनः यहाँ उनका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । जिज्ञासु जन वहां से इनकी जानकारी कर लेवें । इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म के संवेध भंगों का कथन करने के बाद वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के भंग बतलाते हैं । लेकिन ग्रन्थकर्त्ता ने स्वयं उक्त तीन कर्मों के भंगों का निर्देश नहीं किया और न ही यह बताया कि किस जीवस्थान में कितने भंग होते हैं । किन्तु इनका विवेचन आवश्यक होने से अन्य आधार से इनका स्पष्टीकरण करते हैं । भाष्य में एक गाथा आई है, जिसमें वेदनीय और गोत्र कर्म के भंगों का विवेचन चौदह जीवस्थानों की अपेक्षा किया गया है । उक्त गाथा इस प्रकार है पज्जत्तगसन्नियरे अट्ठ चक्कं च वेयणियभंगा । च गोए पत्तेयं जीवठाणेसु ॥ For Private & Personal Use Only सत्तग Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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