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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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उदयस्थान होता है । देवों के जो दुभंग, अनादेय और अयशःकीर्ति का उदय कहा है, वह पिशाच आदि देवों की अपेक्षा समझना चाहिये । यहाँ सुभग और दुभंग में से किसी एक, आदेय और अनादेय में से एक और यश: कीर्ति और अयश: कीर्ति में से किसी एक का उदय होने से, इनकी अपेक्षा कुल २२x२=८ भङ्ग होते हैं ।
इस २१ प्रकृतिक उदयस्थान में वैक्रिय शरीर, वैकिय अंगोपांग, उपघात, प्रत्येक और समचतुरस्र संस्थान, इन पाँच प्रकृतियों को मिलाने और देवगत्यानुपूर्वी को निकाल देने पर शरीरस्थ देव के २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भङ्ग होते हैं ।
अनन्तर २५ प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और प्रशस्त विहायोगति, इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर शरीर पर्याप्त से पर्याप्त हुए देवों के २७ प्रकृतिक उदवस्थान होता है । यहाँ भी पूर्वानुसार आठ भङ्ग होते हैं। देवों के अप्रशस्त विहायोगति का उदय नहीं होने से निमित्त भङ्ग नहीं कहे हैं ।
अनन्तर २७ प्रकृतिक उदयस्थान में प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए देवों के उच्छवास को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होला है । यहाँ भी पूर्वोक्त आठ भङ्ग होते हैं । अथवा शरीर पर्याप्ति
पर्याप्त हुए देवों के पूर्वोक्त २७ प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिला देने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी आठ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थान में कुल १६ भङ्ग होते हैं ।
भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास सहित २६ प्रकृतिक उदयस्थान में सुस्वर को मिला देने पर २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी आठ भङ्ग पूर्ववत् जानना चाहिये । देवों के दुःस्वर प्रकृति का उदय नहीं होता है, अतः तन्निमित्तक भङ्ग यहाँ नहीं कहे हैं। अथवा प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के उच्छवास
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