________________
षष्ठ कर्मग्रन्थ
८३
में भी मोहनीय कर्म के अट्ठाईस प्रकृतिक आदि पन्द्रह सत्तास्थान माने हैं। उनके स्वामी और काल के बारे में भी दोनों साहित्य में अधिकतर समानता है । लेकिन कुछ स्थानों के बारे में दिगम्बर साहित्य में भिन्न मत देखने में आता है । जिसको पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।
•
अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान के काल के बारे में दिगम्बर साहित्य के मत का पूर्व में उल्लेख किया गया है। शेष स्थानों के बारे में यहाँ बतलाते हैं ।
श्वेताम्बर साहित्य में सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का स्वामी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव को बतलाया है। लेकिन दिगम्बर परम्परा के अनुसार कषायप्राभृत की चूर्णि में इस स्थान का स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही बतलाया है
सत्ताबीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी ।
पंचसंग्रह के सप्ततिका संग्रह की गाथा ४५ की टीका में सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है। लेकिन जयधवला में संकेत है कि सत्ताईस प्रकृतियों की सत्तावाला भी उपशम सम्यग्दृष्टि हो सकता है । कषायप्राभृत की चूर्णि से भी इसकी पुष्टि होती है। तदनुसार सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय भी बन जाता है । क्योंकि सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान के प्राप्त होने के दूसरे समय में ही जिसने उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया, उसके सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय तक ही देखा जाता है ।
श्वेताम्बर साहित्य में सादि - सान्त छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बताया है । लेकिन कषायप्राभृत की चूणि में उक्त स्थान का जघन्य काल एक समय बताया है -
'छब्बीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org