SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका प्रकरण इसका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व की उवलना में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर जो त्रिकरण क्रिया का प्रारम्भ कर देता है, और उवलना होने के बाद एक समय का अन्तराल देकर जो उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है, उसके छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । ८४ कर्मग्रन्थ में चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर बताया है, जबकि कषायप्राभृत की चूर्णि में उक्त स्थान का उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बताया है ―― 'चउबीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वे छावट्टि सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।' इसका स्पष्टीकरण जयधवला टीका में किया गया है कि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके जिसने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना की । अनन्तर छियासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा, फिर अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहा । अनन्तर मिथ्यात्व की क्षपणा की । इस प्रकार अनन्तानुवन्धी की विसंयोजना हो चुकने के समय से लेकर मिथ्यात्व की क्षपणा होने तक के काल का योग साधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है । इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर दोनों परम्पराओं में समान रूप से माना है । कषायप्राभृत चूर्णि में लिखा है 'एक्rater वित्ती केवचिरं कालादो ? जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।' इस उत्कृष्ट काल का जयधवला में स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि कोई सम्यग्दृष्टि देव या नारक मर कर एक पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । अनन्तर आठ वर्ष के बाद अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy