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षष्ठ कर्मग्रन्थ इसी प्रकार उदय के बारे में समझना चाहिये। दोनों में से एक समय में एक का बंध या उदय होने का कारण इनका परस्पर विरोधनी प्रकृतियाँ होना है, किन्तु सत्ता दोनों प्रकृतियों की एक साथ पाई जा सकती है। दोनों की एक साथ सत्ता पाये जाने में कोई विरोध नहीं है। लेकिन इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उच्चगोत्र की उद्वलना भी करते हैं, अत: उद्वलना करने वाले इन जीवों के अथवा जब ये जीव अन्य एकेन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो जाते हैं तब उनके भी कुछ काल के लिये सिर्फ एक नीचगोत्र की ही सत्ता पाई जाती है। उसके बाद उच्चगोत्र को बांधने पर दोनों की सत्ता होती है ।२ अयोगिकेवली भी अपने उपान्त्य समय में नीचगोत्र का क्षय कर देते हैं, उस समय उनके सिर्फ एक उच्चगोत्र की ही सत्ता पाई जाती है। ___ गोत्रकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों के सम्बन्ध में उक्त कथन का सारांश यह है कि अपेक्षा से गोत्रकर्म का बंधस्थान भी एक प्रकृतिक होता है, उदयस्थान भी एक प्रकृतिक होता है, किन्तु सत्तास्थान दो प्रकृतिक भी होता है और एक प्रकृतिक भी होता है।
१ णीचुच्चाणेगदरं बंधुदया होंति संभवट्ठाणे ।।
दोसत्ता जोगित्ति य चरिमे उच्चं हवे सत्तं ।।-गो० कर्मकांड, गाथा ६३५ २ उच्चुव्वेल्लिदतेऊ वाउम्मि य णीवमेव सत्तं तु ।
सेसिगिवियले सयले णीचं च दुगं च सत्तं तु ॥ उच्चुवेल्लिदतेऊ वाऊ सेसे य वियलसयलेसु । उप्पण्णपढमकाले णीचं एवं हवे सत्तं ।। ।
-गो० कर्मकांड गा० ६३६, ६३७, .३ तथा गोत्रे सामान्येनैकं बन्धस्थानम्, तद्यथा---उच्चैर्गोत्रं, नीचर्गोत्रं वा, __ द्वयोः परस्पर विरुद्धत्वेन युगपद्बन्धाभावात् । उदयस्थानमप्येकम्, तदपि द्वयोरन्यतरत्, परस्परविरुद्धत्वेन युगपद् द्वयोरुदयाभावात् ।
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