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सप्ततिका प्रकरण
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करने पर मिश्र गुणस्थान में नरकादि गतियों में क्रम से ३, ५,५, ३, भंग होते हैं और चौथे गुणस्थान में देव, नरक गति में तो तिर्यंचायु का बंध रूप भंग नहीं होने से चार-चार भंग हैं तथा मनुष्य- तिर्यंचगति में आयु बंध की अपेक्षा नरक, तिर्यंच, मनुष्य आयु बंधरूप तीन भंग न होने से छह-छह भंग हैं, क्योंकि इनके बंध का अभाव सासादन गुणस्थान में हो जाता है । देशविरत गुणस्थान में तिर्यंच और मनुष्यों के बंध, अबंध और उपरतबंध की अपेक्षा तीन-तीन भंग होते हैं। छठवें, सातवें गुणस्थान में मनुष्य के ही और देवायु के बंध की ही अपेक्षा तीन-तीन भङ्ग होते हैं। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि सात गुणस्थानों में सब मिलाकर अपुनरुक्त भङ्ग क्रम से २८,२६,१६, २०,६,३,३ हैं । '
वेदनीय और आयु कर्म के संवेध भङ्गों का विचार करने के अनन्तर अब गोत्रकर्म के भङ्गों का विचार करते हैं ।
गोत्रकर्म के संवेध भंग
गोत्र कर्म के दो भेद हैं- उच्चगोत्र, नीचगोत्र । इनमें से एक जीव के एक काल में किसी एक का बंध और किसी एक का उदय होता है। क्योंकि दोनों का बंध या उदय परस्पर विरुद्ध है । जव उच्च गोत्र का बंध होता है तब नीच गोत्र का बंध नहीं और नीच गोत्र के बंध के समय उच्च गोत्र का बंध नहीं होता है ।
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इन भंगों के अतिरिक्त गो० कर्मकांड में उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि की अपेक्षा मनुष्यगति में आयुकर्म के कुछ और मंग बतलाये हैं कि उपशमश्रेणि में देवायु का भी बंध न होने से देवायु के अबन्ध, उपरतबंध की अपेक्षा दो-दो भंग हैं तथा क्षपकश्रेणि में उपरतबंध के भी न होने से अबन्ध की अपेक्षा एक-एक ही भंग है । अतः उपशमश्र णि वाले चार गुणस्थानों में दो-दो मंग और उसके बाद क्षपकश्रेणि में अपूर्वकरण से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तक एक-एक भंग कहा गया है ।
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