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षष्ठ कर्मग्रन्थ
इस प्रकार चारों गतियों के ५+६+६+५=२८, कुल मिलाकर आयुकर्म के अट्ठाईस भंग होते हैं।' प्रत्येक गति में आयु के भंग लाने के लिये गो० कर्मकांड गा० ६४५ में एक नियम सूत्र दिया है
एक्काउस्स तिभंगा सम्भवआउहि ताडिदे णाणा।
जीवे इगिभवभंगा रूऊणगुगूणमसरित्थे ॥ इसका सारांश यह है कि जिस गति में जितनी आयुयों का बंध होता है, उस संख्या को तीन से गुण कर दें और जहाँ जो लब्ध आये उसमें से एक कम बंधने वाली आयुयों की संख्या घटा दें तो प्रत्येक गति में आयु के अबन्ध, बंध और उपरतबंध की अपेक्षा कुल भंग प्राप्त हो जाते हैं। जैसे कि–देव और नारक में दो-दो आयु का ही बंध सम्भव है, अत: उन दोनों में छह-छह भंग होते हैं। अब इनमें एक-एक कम बंधने वाली आयुयों की संख्या को कम कर दिया तो नरकगति के पाँच भंग और देवगति के पाँच भंग आ जाते हैं। मनुष्य और तिर्यंचगति में चार आयुयों का बंध होता है। अतः चार को तीन से गुणा करने पर बारह होते हैं। अब इनमें से एक कम बंधने वाली आयुयों की संख्या तीन को घटा दें तो मनुष्य और तिर्यंचगति के नौ-नौ भंग आ जाते हैं। अतएव देव, नारक में पाँचपाँच और मनुष्य, तिर्यंच में नौ-नौ भंग अपुनरुक्त समझना चाहिये।
उक्त अपुनरुक्त भंग नरकादि गति में चारों आयुयों के क्रम से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में समझना चाहिये । दूसरे गुणस्थान में नरकायु के बिना बंध रूप भंग होते हैं, अत: वहाँ ५,८,८,५ भंग जानना। पूर्व में जो आयुबंध की अपेक्षा भंग कहे गये हैं, वे सब कम
१ नारयसुराउउदओ चउ पंचम तिरि मणुस्स चोद्दसमं ।
आसम्मदेसजोगी उवसंता संतयाऊणं । अब्बंधे इगि संतं दो दो बद्धाउ बज्झमाणाणं । चउसु वि एक्कस्सुदओ पण नव नव पंच इइ भेया ।
-पंचसंग्रह सप्ततिका ८,९
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