________________
सप्ततिका प्रकरण ___इनमें से पहला भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, क्योंकि मिथ्या दृष्टि गुणस्थान के सिवाय अन्यत्र नरकायु का बंध सम्भव नहीं है। तिर्यंचायु का बंध दूसरे गुणस्थान तक होता है, अत: दूसरा भंग मिथ्यात्व, सासादन इन दो गुणस्थानों में होता है। तीसरा भंग भी मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानों में ही पाया जाता है, क्योंकि मनुष्य तिर्यंचायु के समान मनुष्यायु का बन्ध भी दूसरे गुणस्थान तक ही करते हैं। चौथा भंग मिश्र गुणस्थान को छोड़कर अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में होता है। क्योंकि मनुष्यगति में देवायु का बंध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाया जाता है।
उपरतबंधकाल में-१. मनुष्यायु का उदय और नरकमनुष्यायु का सत्त्व, २. मनुष्यायु का उदय और तिर्यंच-मनुष्यायु का सत्त्व, ३. मनुष्यायु का उदय और मनुष्य-मनुष्यायु का सत्त्व तथा ४. मनुष्यायु का उदय और देव-मनुष्यायु का सत्व, यह चार भंग होते हैं।
उक्त चार भंगों में से आदि के तीन भंग सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाये जाते हैं। क्योंकि यद्यपि मनुष्यगति में नरकायु का बंध पहले गुणस्थान में, तिर्यंचायु का बंध दूसरे गुणस्थान तक तथा इसी प्रकार मनुष्यायु का बंध भी दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, तथापि बंध करने के बाद ऐसे जीव संयम को तो धारण कर सकते हैं, किन्तु श्रेणि-आरोहण नहीं करते हैं। इसलिये उपरतबंध की अपेक्षा नरक, तिर्यंच और मनुष्य आयु इन तीन आयुयों का सत्त्व अप्रमत्त गुणस्थान तक बतलाया है । चौथा भंग प्रारम्भ के ग्यारह गुणस्थानों तक पाया जाना सम्भव है, क्योंकि देवायु का जिस मनुष्य ने बंध कर लिया है, उसके उपशमश्रेणि पर आरोहण सम्भव है। इस प्रकार मनुष्यगति में अबन्ध, बंध और उपरतबंध की अपेक्षा आयुकर्म के कुल नौ भंग होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org