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षष्ठ कर्मग्रन्थ मनुष्यगति के उपरतबंध भंगों की विशेषता
तिर्यंचगति में उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु . और मनुष्यायु की सत्ता पाँचवें गुणस्थान तक तथा मनुष्यगति में उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु की सत्ता सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक बतलाई है । इस सम्बन्ध में मतभिन्नता है ।
देवेन्द्रसूरि ने दूसरे कर्मग्रन्थ 'कर्मस्तव' के सत्ताधिकार में लिखा है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है तथा आगे इसी ग्रन्थ में यह भी लिखा है कि चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में अनन्तानुबंधीचतुष्क की विसंयोजना और दर्शनमोहत्रिक का क्षय हो जाने पर १४१ की सत्ता होती है और अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में अनन्तानुबंधीचतुष्क, नरकायु और तिर्यंचायु इन छह प्रकृतियों के बिना १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है।
उक्त कथन का सारांश यह है कि १. उपरतबंध की अपेक्षा चारों आयुयों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक सम्भव है और २. उपरतबंध की अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु की सत्ता सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है। इस प्रकार दो मत फलित होते हैं।
पंचसंग्रह सप्ततिका-संग्रह नामक प्रकरण की गाथा १०६ तथा बृहत्कर्मस्तव भाष्य से दूसरे मत की पुष्टि होती है, किन्तु पंचसंग्रह के इसी प्रकरण की छठी गाथा में इन दोनों से भिन्न एक अन्य मत भी दिया है कि नरकायु की सत्ता चौथे गुणस्थान तक, तिर्यंचायु की
१ गाथा २५, द्वितीय कर्मग्रन्थ ।
२ गाथा २६, द्वितीय कर्मग्रन्थ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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