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मिश्र गुणस्थान में आने वाले जीव के सम्यक्त्व की सत्ता नहीं रहती है, शेष जीवों के रहती है ।
चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक क्षायिक सम्यदृष्टि के सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति को सत्ता नहीं होती है किन्तु क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को उसकी सत्ता अवश्य रहती है ।
शतक
इस प्रकार मोहनीय कर्म की प्रकृति मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सत्ता का विचार आदि के ग्यारह गुणस्थानों में किया गया । अन्त के तीन गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है अतः इनकी सत्ता नहीं रहती है । अब आगे मिश्र मोहनीय और अनन्तानुबंधी कषाय की सत्ता का विचार करते हैं ।
मिश्र मोहनीय और अनन्तानुबंधी की सत्ता का नियम
मिश्र मोहनीय की निश्चित रूप से किस गुणस्थान में सत्ता होती है, इसके लिये कहा है- 'सासणमीसेसु धुवं मीसं -सासादन और मिश्र गुणस्थान में मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) मोहनीय की सत्ता नियम से होती है । इसका कारण यह है कि 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जो मिथ्यात्व के तीन पुंज हो जाते हैं और उस सम्यक्त्व के काल में जब कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलिका काल शेष रह जाता है तब सासादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है । उस समय उस जीव के परिणाम निश्चित रूप से न तो सम्यक्त्व रूप होते हैं और न मिथ्यात्व रूप किंतु सम्यक्त्वांश भी होता है और मिथ्यात्वांश भी । इसीलिये मिश्र प्रकृति की सत्ता रहती है । इसीलिये दूसरे गुणस्थान में मिश्र प्रकृति की सत्ता मानने का विधान किया है ।
तीसरा मिश्र गुणस्थान मिश्र मोहनीय के उदय के बिना होता नहीं है । इसीलिये तीसरे गुणस्थान में मिश्र प्रकृति की ध्रुवसत्ता कही
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