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पंचम कर्मग्रन्थ
है और विकल्प से पाये जाने वाले गुणस्थानों के बारे में कहा है कि 'मिच्छाइनवसु भयणाए' यानी दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले मिथ्यात्व, चौथे, पांचवें,छठे, सातवें, आठवें, नौवें, दसवें, ग्यारहवें, इन नौ गुणस्थानों में अध्रुवसत्ता है। क्योंकि जिस मिथ्यादृष्टि जीव ने मिश्र प्रकृति की उद्वलना की है, उसके व अनादि मिथ्यात्वी के मिश्र प्रकृति की सत्ता नहीं है । चौथे आदि आठ गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के मिश्र प्रकृति की सत्ता नहीं होती है, शेष जीवों के इसकी सत्ता होती है।
मिश्र मोहनीय प्रकृति की सत्ता का कथन करने के पश्चात अब अनन्तानुबंधी की सत्ता के बारे में बतलाते हैं ।।
अनन्तानुबंधी के निश्चित गुणस्थानों के बारे में कहा है-'आइदुगे अण नियमा' आदि के दो-पहले, दूसरे गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी की ध्रुवसत्ता है । क्योंकि दूसरे गुणस्थान तक अनन्तानुबंधी का बंध होता है, इसीलिये उसकी सत्ता अवश्य रहेगी। शेष तीसरे आदि नौ गुणस्थानों में उसकी सत्ता अध्रुव है-'भइया मीसाइनवगम्मि ।' क्योंकि अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करने वाले के अनन्तानुबंधी को सत्ता नहीं होती है। ___अनंतानुबंधी की अध्रुवसत्ता के विषय में ऊपर कार्मअन्थिक मत का उल्लेख किया गया है कि तीसरे आदि नौ गुणस्थानों में विकल्प से सत्ता है । लेकिन कर्मप्रकृति' और पंच
१ संजोयणा उ नियमा दुसु पंचसु होइ भइयव्वं ।
-कर्मप्रकृति (सत्ताधिकार) दो गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी नियम से होती है और पाँच गुणस्थानों में भजनीय है।
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