SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम कर्मग्रन्थ जब कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के अभिमुख होता है तब करणलब्धि के बल से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय मिथ्यात्व मोहनीय के दलिको के तीन रूप हो जाते हैं— शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध । शुद्ध दलिक सम्यक्त्व, अर्धशुद्ध मिश्र और अशुद्ध मिथ्यात्व मोहनीय कहलाते हैं । उपशम सम्यक्त्व के अंत में उक्त तीन पुंजों में से यदि मिथ्यात्व मोहनीय का उदय हो जाता है तो पहला गुणस्थान, यदि मिश्र ( सम्यक्त्व - मिथ्यात्व ) मोहनीय का उदय होता है तो तीसरा मिश्र गुणस्थान हो जाता है । इस प्रकार पहले और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व की सत्ता रहती है । इसीलिये पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व की सत्ता मानी गई है । पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय चौथे अविरति आदि आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता होने और न होने का कारण यह है कि यदि उन गुणस्थानों में मिथ्यात्व का क्षय कर दिया जाता है यानी क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है तो मिथ्यात्व की सत्ता नहीं रहती है और यदि मिथ्यात्व का उपशम किया जाता है तो मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य रहती है । मिथ्यात्व की सत्ता रहने के कारण ही उपशम श्र णि वाला ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होता है । ४५ दूसरे सासादन गुणस्थान के सिवाय मिथ्यात्व आदि दस गुणस्थानों में सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता विकल्प से मानने यानी होती भी है और नही भी होती है, का कारण यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के जिसने कभी भी मिथ्यात्व के शुद्ध, अर्धशुद्ध, अशुद्ध यह तीन पुंज नहीं किये तथा जिस सादि मिथ्यादृष्टि जीव ने सम्यक्त्व ( शुद्ध पुंज) की उवलना कर दी है, उसके सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता नहीं होती है, शेष मिथ्यादृष्टि जीवों के उसकी सत्ता होती है । इसी तरह मिथ्यात्व गुणस्थान में सम्यक्त्व की उद्बलना करके www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy