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पंचम कर्मग्रन्थ
३६ रिक संघात, औदारिक बंधन, औदारिक-तैजस बंधन, औदारिककार्मण बंधन, औदारिक-तैजस-कार्मण बंधन ।
उच्छ्वास चतुष्क-उच्छ्वास, आतप, उद्योत, पराघात । खगतिद्विक-शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगति । तिर्यचद्विक-तिर्यंचगति तिर्यंचानुपूर्वी। मनुष्यद्विक—मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ।
वैक्रियएकादश–देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, वैक्रिय संघात, वैक्रियवैक्रिय बंधन, वैक्रियतैजस बंधन, वैक्रियकार्मण बंधन, वैक्रिय-तैजस-कार्मण बंधन ।
आहारकसप्तक-आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, आहारकसंघातन, आहारक-आहारक बंधन, आहारक-तैजस बंधन, आहारककार्मण बंधन, आहारक-तैजस-कार्मण बंधन ।
इन संज्ञाओं में गृहीत प्रकृतियों तथा कुछ प्रकृतियों के नाम निर्देश पूर्वक ध्रुव-अध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों की अलग अलग संख्या बतलाई है। तसवन्नवीस से लेकर नीयं धुवसंता पद तक ध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों के नाम हैं तथा सम्ममीस मणुयदुगं से लेकर हारसगुच्चा पद तक अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों के नाम हैं । कुल मिलाकर ये १५८ प्रकृतियां हो जाती हैं। ____ बंध और उदय में ध्रुवबंधिनी और ध्रुवोदया प्रकृतियों की संख्या अध्रुवबंधिनी और अध्रुवोदया की अपेक्षा कम है, लेकिन इसके विपरीत सत्ता में ध्रुवसत्ता प्रकृतियों की संख्या अधिक और अध्रुवसत्ता प्रकृतियों की संख्या कम है । इसका स्पष्टीकरण यह है कि बंध के समय ही किसी प्रकृति का उदय हो जाये और किसी प्रकृति के उदय के समय ही उस प्रकृति का बंध भी हो जाये यह आवश्यक नहीं
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