SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक ग्रन्थ में स्पष्ट किये गये हैं और संख्या इस प्रकार है-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण , वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नामकर्म १०३, गोत्र २, अंतराय ५। कुल मिलाकर (५ +६+२+२८+४+१०३+२+५) १५८ भेद हो जाते हैं। इन १५८ प्रकृतियों का ध्रुव और अध्रुव सत्ता रूप में कथन करने के लिये निम्नलिखित संज्ञाओं का उपयोग किया गया है । संज्ञाओं और उनमें गभित प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं__ त्रसवीशक- त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ।' वर्णवीशक-पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श ।। तंजस कार्मण सप्तक-तैजस शरीर, कार्मण शरीर, तैजसतैजस बंधन, तैजसकार्मण बंधन, कार्मण-कार्मण बन्धन, तेजस संघातन, कार्मण संघातन । आकृतित्रिक-छह संस्थान-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि कुब्ज, वामन, हुंड । छह संहनन-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवार्त। पांच जाति-(जाति नामकर्म के भेद) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय । युगलद्विक-हास्य और रति का युगल तथा शोक व अरति का युगल। __ औदारिकसप्तक-औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, औदा .. त्रस से लेकर यशःकीर्ति तक की प्रकृतियां त्रसदशक और स्थावर से अयशःकीति तक की प्रकृतियां स्थावरदशक कहलाती हैं। २. वर्ण चतुष्क में गर्भित नामों को प्रथम कर्मग्रन्थ में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy