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पंचम कर्मग्रन्थ
संस्थान, छह संहनन और पांच जाति, वेयणियं-वेदनीय, दुजुयलदो युगल, सगउरल-औदारिक-सप्तक, सासचक श्वासचतुष्क । '
खगईतिरिदुग खतिद्विक और तिर्यचद्विक, नीयं -- नीच गोत्र, धुवसंता-ध्र वसत्ता सम्म-सम्यक्त्व मोहनीय, मीस - मिश्र मोहनीय, मणुयदुगं मनुष्य द्विक, विउविक्कार - वैक्रिय एकादश, जिण -जिन नामकर्म, आऊ-चार आयु, हारसग-~आहारकसप्तक, उच्चा उच्च गोत्र, अधुव संता-अध्र व सत्ता ।
गाथार्थ-तसवीशक और वर्णवीशक, तैजस-कार्मण सप्तक, बाकी की ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियां, तीन वेद, आकृतित्रिक, वेदनीय, दो युगल, औदारिक सप्तक, उच्छ्वास चतुष्क तथा
विहायोगतिद्विक, तियंचद्विक, नीच गोत्र, ये सब ध्रुवसत्ता प्रकृतियां हैं । सम्यक्त्व, मिश्र, मनुष्यद्विक, वैक्रियएकादश, तीर्थंकर नामकर्म, चार आयु, आहारक-सप्तक और उच्च गोत्र ये अध्रुव सत्ता प्रकृतियां जानना चाहिये। विशेषार्थ-बंध एवं उदय प्रकृतियों का ध्रुव व अध्रुव के भेद से वर्गीकरण करने के पश्चात् इन दोनों गाथाओं में ध्रुव सत्ता और अध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों की संख्या बतलाई है । कुछ प्रकृतियों के तो नाम बतलाये हैं और कुछ प्रकृतियों का संज्ञाओं द्वारा निर्देश किया है।
बंध-योग्य प्रकृतियां १२० हैं और उदययोग्य १२२ प्रकृतियां हैं, लेकिन सत्ता प्रकृतियों की संख्या १५८ है।' जिनके नाम प्रथम कर्म
१. बंध की अपेक्षा उदय, सत्ता प्रकृतियों के अन्तर का कारण परिशिष्ट
में देखिये।
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