________________
शतक
___ बंध एवं उदय प्रकृतियों के उक्त ध्रुव, अध्रुव भेदों में भंगों को घटित करने का सारांश यह है कि मिथ्यात्व को छोड़कर शेष उदय प्रकृतियों में पहले दो-अनादि-अनंत, अनादि-सान्त भंग तथा मिथ्यात्व में तीन-अनादि-अनंत, अनादि-सान्त तथा सादि-सान्त भंग होते हैं । ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादिसान्त यह तीन भंग घटित होते हैं । अध्रुव बंध व उदय प्रकृतियों में सिर्फ सादि-सान्त यह एक भंग होता है । यह भंग भव्य और अभव्य जीवों की पारिणामिक स्थिति के कारण बनते हैं। ग्रन्थकार ने सूत्र रूप में प्रकृतियों में घटित होने वाले भंगों का संकेत गाथा ५ में कर ही दिया है कि
पढमबिया धुवउदइसु धुवबंधिसु तइअवज्ज भंगतिगं । मिच्छम्मि तिन्नि भंगा दुहावि अधुवा तुरिम भंगा ॥ इस प्रकार से ध्रुव-अध्रुव बंध, उदय प्रकृतियों के नाम और उनमें घटित होने वाले भंगों की संख्या का कारण सहित स्पष्टीकरण करने के पश्चात अब दो गाथाओं में ध्रुव, अध्रुव सत्ता प्रकृतियों को गिनाते हैं। ध्र व-अध्र व सत्ता प्रकृतियां
तसवन्नवीस सगतेय-कम्म धुवबंधि सेस वेयतिगं । आगिइतिग वेयणियं दुजुयल सगउरल सासचऊ ॥८॥ खगइतिरिदुग नीयं धुवसंता सम्म मीस मणुयदुगं । विउविक्कार जिणाऊ हारसगुच्चा अधुवसंता ॥६॥
शब्दार्थ-तसवन्नवीस- त्रस आदि बीस व वर्ण आदि बीस प्रकृति यां, सगतेयकम्म तेजप कार्मण सप्तक, धुवबंधि-ध्र वबंधिनी, सेस-बाकी की, वेयतिगं-वेदत्रिक, आगिइतिग-आकृतित्रिक-छह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org