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________________ शतक. है। किन्तु जो बंधदशा में है और जिसका उदय हो रहा है, उसकी सत्ता अवश्य होती है। इसी कारण ध्रुवसत्ता वाली. प्रकृतियों की संख्या अधिक और अध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों की संख्या कम है। त्रसादि बीस से लेकर नीच गोत्र पर्यन्त की प्रकृतियों को ध्रुवसत्ता वाली मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं। सादि बीस, वर्णादि बीस और तेजस-कार्मण सप्तक की सत्ता सभी संसारी जीवों के रहती है । समस्त ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां ध्रुव सत्ता वाली होती हैं। क्योंकि जिनका बंध सर्वदा हो रहा है उनकी अवश्य ही ध्रुव सत्ता होगी। लेकिन वर्णवीशक में वर्णचतुष्क और तैजसकार्मण सप्तक में तैजस, कार्मण शरीर का अलग से निर्देश कर दिये जाने से सैंतालीस ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में से इन छह प्रकृतियों को कम करके शेष ४१ प्रकृतियों का संकेत किया है। तीनों वेदों का बंध और उदय अध्रुव बतलाया है किन्तु उनकी सत्ता ध्रुव है । क्योंकि वेदों का बंध क्रम-क्रम से होता है लेकिन उनके एक साथ रहने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। परस्पर दलों की संक्रांति होने की अपेक्षा वेदनीयद्विक को ध्रुवसत्ता माना है। हास्य-रति और शोकअरति इन दोनों युगलों की सत्ता नौवें गुणस्थान तक सदैव रहती है अतः इनकी सत्ता को ध्रुव माना है। औदारिक सप्तक की सत्ता भी सदा रहती है । क्योंकि मनुष्य व तिर्यंच गति में इनका उदय रहता है तथा देव व नरक गति में इनका बंध होता है । इसीलिये इनको ध्रुवसत्ता माना है। इसी प्रकार उच्छ्वास चतुष्क, विहायोगति युगल, तिर्यचद्विक, नीच गोत्र की सत्ता भी सदैव रहती है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से पहले सभी जीवों में ये प्रकृतियां सदा रहती हैं। इसीलिए इनको ध्रुवसत्ता कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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