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________________ पचम कर्मग्रन्थ संज्वलन कषाय के बंध का निरोध जब कोई जीव नौवें गुणस्थान में करता है तब अनादि सान्त भंग घटित होता है और जब वही जीव नौवें गुणस्थान से च्युत होकर पुनः संज्वलन कषाय का बंध करता है तथा पुनः नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर उसका निरोध करता है तब सादि - सान्त चौथा भंग होता है । ३३ निद्रा, प्रचला, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, भय और जुगुप्सा ये तेरह प्रकृतियां आठवें गुणस्थान में विच्छिन्न हो जाती हैं तब इनका अनादि सान्त भंग होता है। और आठवे गुणस्थान से पतन होने के बाद जब उनका बंध होता है तो वह सादि बंध है तथा पुनः आठवें गुणस्थान में पहुँचने पर जब उनका बंधविच्छेद हो जाता है तो वह बंध सान्त कहलाता है । इस प्रकार उनमें सादि - सान्त यह चौथा भंग घटित होता है । प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध पांचवें गुणस्थान तक अनादि है किन्तु छठे गुणस्थान में उसका अभाव हो जाने से सान्त होता है । अतः अनादि - सान्त भंग होता है । छठे गुणस्थान से गिरने पर जब पुनः बंध होने लगता है और छठे गुणस्थान के प्राप्त करने पर उसका अभाव हो जाता है तब चौथा सादि- सान्त भंग घटित होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध चौथे गुणस्थान तक अनादि है, लेकिन पांचवें गुणस्थान में उसका अन्त हो जाता है अतः दूसरा अनादि सान्त भंग बनता है तथा पांचवें गुणस्थान से गिरने पर पुनः बन्ध और जब पांचवें गुणस्थान के प्राप्त होने पर अबंध करने लगता है तब सादि सान्त चौथा भंग होता है । मिथ्यात्व, स्त्यानद्धित्रिक, अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क का अनादि बंधक मिथ्यादृष्टि जब सम्यक्त्व को प्राप्ति होने पर उनका बंध नहीं करता है तब दूसरा अनादि - सान्त भंग और पुनः मिथ्यात्व में गिर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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