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रूप होने से प्रश्न होता है कि ध्रुव प्रकृतियों का सदैव अनादि से अनन्त काल तक बंध, उदय होता रहेगा और अध्रुव प्रकृतियों का सादिसान्त बंध, उदय होता है । इसलिये अनादि अनंत और सादि -सान्त यह दो भंग मानना चाहिये ।
इसका समाधान यह है कि संसारी जीव कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । अनादि से अनन्तकाल तक यह क्रम चलता है । लेकिन जो जीव भव्य हैं- मुक्तिप्राप्ति की योग्यता वाले हैं तथा अभव्य -मुक्तिप्राप्ति की योग्यता वाले नहीं हैं, उनकी अपेक्षा से अनादि अनंत आदि चार भंग होते है । जिनका बंध और उदय प्रकृतियों में स्पष्टीकरण किया जा रहा है ।
शतक
कर्म प्रकृतियों में होने वाले चार भंगों के नाम पूर्व में बतलाये जा चुके हैं । उनमें से ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग के सिवाय शेष अन्नादि अनंत, अनादि-सान्त, सादि-सांत यह तीन भंग होते हैं-जो इस प्रकार हैं
पहला अनादि अनंत भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से होता है । क्योंकि अभव्य जीवों के ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का बंध अनादि अनंत होता है । अनादि- सान्त दूसरा भंग भव्य जीवों की अपेक्षा घटित होता है । क्योंकि पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय और चार दर्शनावरण इन चौदह प्रकृतियों के बंध की अनादि सन्तान जब दसवें गुणस्थान में विच्छिन्न हो जाती है तब अनादि सान्त भंग होता है तथा ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में उक्त चौदह प्रकृतियों का बंध न करके मरण हो जाने अथवा ग्यारहवें गुणस्थान का समय पूरा हो जाने के कारण कोई जीव ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जब पुनः उक्त चौदह प्रकृतियों का बंध करता है और दसवें गुणस्थान में पुनः उनका बंधविच्छेद करता है तब सादि - सान्तं नामक चतुर्थ भंग घटित होता है ।
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