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कर उक्त प्रकृतियों का बंध करने और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर बंध नहीं करने पर चौथा सादि - सान्त भंग होता है । इस प्रकार ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीसरे सादि अनंत भंग के सिवाय शेष अनादिअनंत, अनादि - सान्त और सादि-सान्त ये तीन भंग होते हैं ।
शतक
अब ध्रुवोदया प्रकृतियों में भंगों को घटित करते हैं । ध्रुवोदया प्रकृतियों में पहला अनादि अनंत और दूसरा अनादि- सान्त यह दो भंग होते हैं । ध्रुवोदया २७ प्रकृतियों के नाम यथास्थान बतलाये जा चुके हैं । उनमें से मिथ्यात्व प्रकृति में विशेषता है । इसलिए उसके भंगों के बारे में अलग से कथन किये जाने से शेष छब्बीस प्रकृतियों के बारे में स्पष्टीकरण करते हैं ।
(निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय और चार दर्शनावरण इन छब्बीस ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला अनादि-अनन्त भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा घटित होता है) क्योंकि अभव्य जीवों के ध्रुवोदया प्रकृतियों के उदय का न तो आदि है और न अंत ही होता है ।
दूसरा अनादि- सान्त भंग भव्य जीवों की उपेक्षा घटित होता है । पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय और चार दर्शनावरण इन चौदह प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान तक तो जीवों को अनादि काल से है, लेकिन बारहवें गुणस्थान के अंत में जब इनका विच्छेद हो जाता है तब वह उदय अनादि-सान्त कहा जाता है। इसी प्रकार निर्माण, स्थिर, अस्थिर आदि शेष बची हुई बारह प्रकृतियों का अनादि उदय तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान के अंत में विच्छिन्न हो जाता है तब उनका उदय अनादि-सांत कहलाता है ।
इस प्रकार मिथ्यात्व के सिवाय शेष ध्रुवोदया प्रकृतियों में केवल दो ही भंग घटित होते हैं- अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि-अनन्त
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