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________________ २० अरति युगल के बंध के समय हास्य-रति युगल का बंध संभव नहीं है । इन चार प्रकृतियों का सान्तर बंध होता है । लेकिन यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि हास्य, रति, अरति, शोक, यह चारों प्रकृतियां छठे गुणस्थान तक ही अध्रुवबन्धिनी हैं । छठे गुणस्थान में शोक और अरति का बन्धविच्छेद हो जाने पर आगे हास्य और रति का निरंतर बंध होता है, जिससे वे ध्रुवबंधिनी हो जाती हैं । शतक स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद में से एक समय में किसी एक वेद का बंध होता है । गुणस्थान की अपेक्षा नपुंसक वेद पहले गुणस्थान में, स्त्री वेद दूसरे गुणस्थान तक बंधता है । उसके बाद आगे के गुणस्थानों में पुरुषवेद का बंध होता है । आयुकर्म के देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु इन चार भेदों में से एक भव में एक ही आयु का बंध होता है । इसीलिये इनको अध्रुवबन्धी कहा है । इस प्रकार तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबन्धिनी समझना चाहिये । जिनमें वेदनीय की दो, मोहनीय की सात, आयुकर्म की चार, नाम कर्म की अट्ठावन और गोत्रकर्म की दो प्रकृतियां शामिल हैं । बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुवबन्धिनी और ७३ अध्रुवबन्धिनी हैं । ४७+७३ का कुल जोड़ १२० होता है । बंध, उदय प्रकृतियों के अनादि-अनन्त आदि भंग ग्रन्थलाघव की दृष्टि से क्रमप्राप्त ध्रुवोदया और अध्रुवोदया प्रकृतियों के नामों को न बताकर कर्मबंध और कर्मोदय की कितनी दशायें होती हैं, इस जिज्ञासा के समाधान के लिये पहले भंगों को बतलाते हैं । जो बंध के भंगों के नाम हैं, वही उदय के भंगों के भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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