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पचम कर्मग्रन्थ
वसदशक और स्थावरदशक की कुल बीस प्रकृतियां परस्पर विरोधिनी हैं तथा अपने-अपने प्रायोग्य प्रकृतियों के बंधं होने पर बंधती हैं । इसलिये इनको अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना है।
उच्च गोत्र और नीच गोत्र परस्पर में विरोधिनी प्रकृतियां हैं। उच्च गोत्र का बंध होते हुए नीच गोत्र का और नीच गोत्र का बंध होते हुए उच्च गोत्र का बंध नहीं होता है। अतएव इन दोनों को अध्रुवबंधी कहा है। साता वेदनीय और असाता वेदनीय भी परस्पर में एक दूसरे की विरोधी हैं, जिससे इनको अध्रुवबन्धिनी प्रकृति माना जाता है।
गोत्र कर्म और वेदनीय कर्म की प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने के साथ-साथ उनके बारे में यह विशेषता भी समझना चाहिये कि छठे गुणस्थान तक ही साता और असाता वेदनीय अध्रुवबंधी हैं, लेकिन छठे गुणस्थान में असाता वेदनीय का बंधविच्छेद हो जाने पर आगे सातवें आदि गुणस्थानों में साता वेदनीय कर्म ध्रुवबंधी हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान तक उच्च गोत्र और नीच गोत्र अध्रुवबन्धी हैं, किंतु दूसरे गुणस्थान में नीच गोत्र का बंधविच्छेद हो जाने से आगे के गुणस्थानों में उच्च गोत्र ध्रुवबन्धी हो जाता है।
मोहनीय कर्म की 'हासाइ जुयलदुग' हास्यादि दो युगल अर्थात् हास्य-रति तथा शोक-अरति यह चार प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं। क्योंकि ये दोनों युगल परस्पर विरोधी हैं। जब हास्य-रति युगल का बंध होता है तब शोक-अरति युगल का बंध नहीं होता है तथा शोक
१ प्रत्येक गुणस्थान में बंधयोग्य और विच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के लिये
दूसरा कर्मग्रन्थ गाथा ४ से १२ देखिये ।
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