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पंचम कर्मग्रन्थ
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हासाइ- हास्यादिक, जुयलदुग-दो युगल, वेय-तीन वेद, आउ-चार आयुकर्म, तेवुत्तरी-तिहत्तर, अधुवबंधा-अध्र वबंधी, मंगा-मंग, अणाइसाई-अनादि और सादि, अणंतसंत्त त्तराअनन्त और सांत उत्तर पद से सहित, चउरो-चार मंग।
___गापार्थ-तीन शरीर, तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पांच जाति, चार गति, दो विहायोगति, चार आनुपूर्वी, तीर्थंकर नामकर्म, श्वासोच्छ्वास नामकर्म, उद्योत, आतप, पराघात, त्रसादि बीस, दो गोत्र, दो वेदनीय, हास्यादि दो युगल, तीन वेद, चार आयु, ये तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं। इनके अनादि और सादि अनन्त और सान्त पद से सहित होने से चार भंग होते हैं।
विशेषार्थ-बन्धयोग्य १२० प्रकृतियां हैं। उनमें से सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी हैं और शेष रही तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं । इन दो गाथाओं में अध्रुवबन्धिनी तिहत्तर प्रकृतियों तथा इनके बनने वालों भंगों के नाम बताये हैं ।। ___ इन अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में अधिकतर नामकर्म की तथा वेदनीय, आयु, गोत्र कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों व कुछ मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के नाम हैं। जिनका अपने-अपने मूल कर्म के नाम सहित विवरण इस प्रकार है
(१) वेदनीय-साता वेदनीय, असाता वेदनीय ।
(२) मोहनीय-हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद ।
(३) आयु-देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु, नरकायु ।
(४) नाम-तीन शरीर-औदारिक वैक्रिय, आहारक शरीर, तीन अंगोपांग-औदारिक, वैक्रिय, आहारक अंगोपांग, छह संस्थान
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