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________________ शतक समचतुरस्र, न्यग्रोध, परिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुण्डक, छह संहनन-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवार्त, पांच जाति -एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, चार गति-देव, मनुष्य, तिथंच नारक, दो विहायोगति-शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगति, चार आनुपूर्वीदेवानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी तिर्यंचानुपूर्वी, नरकानुपूर्वी, तीर्थंकर, उच्छ्वास, उद्योत, आतप, पराघात, त्रसवोशक (त्रसदशक,स्थावरदशक)।' (५) गोत्र - उच्च गोत्र, नीच गोत्र । उपर अध्रुवबन्धिनी तिहत्तर प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। तस बायर पज्जत्तं पत्तेय थिरं सुमं च सुभगं च । सुसराइज्ज जसं तसदसगं थावरदसं तु इमं ।। थावर सुहम अपज्जं साहारण अथिर असुभ दुभगाणि । दुस्सरऽणाइज्जाजसमिय -कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, गा० २६, २७. -स दशक-त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश कीर्ति ।। --स्थावरदशक- स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश कीर्ति । दिगम्बर साहित्य में अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के दो भेद किये हैं-सप्रतिपक्षी और अप्रतिपक्षी। इनमें ग्रहण की गई प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं सेसे तित्थाहारं परघादचउक्क सव्व आऊणि । अप्पडिवक्खा सेसा सप्पडिवक्खा हु वासट्ठी ॥ -गो० कर्मकांर १२५ --- तीर्थकर, आहारकद्विक, पराघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, चार आयु ये ग्यारह प्रकृतियां अप्रतिपक्षी हैं। अर्थात् इनकी कोई विरोधिनी प्रकृति नहीं है। फिर भी इनका बंध कुछ विशेष अवस्था में होता है, अतः अध्र वबंधिनी कहा जाता है और शेष बासठ प्रकृतियों को सप्रतिपक्षी होने के कारण अध्र वबंधिनी माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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