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________________ १४ शतक राय की पांच प्रकृतियां सम्मिलित है, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि कारणों के होने पर सभी जीवों को अवश्य बंधती हैं, इसीलिये इनको ध्रुवबन्धिनी' प्रकृति मानते हैं। अब आगे की दो गाथाओं में अध्रुवबंधी प्रकृतियों के नाम और बन्ध व उदय की अपेक्षा से प्रकृतियों के भंग बतलाते हैं। अध्र वबंधी प्रकृतियां और बंध व उदय की अपेक्षा से प्रकृतियों के भग तणुवंगागिइसंघयण जाइगइखगइपुग्विजिणुसासं । उज्जोयायवपरघा तसवीसा गोय वणिय ॥३॥ हासाइजुयलदुगवेय आउ तेवुत्तरी अधुवबंधा। भंगा अणाइसाई अणंतसंत्तुत्तरा चउरो ॥४॥ शब्दार्थ-तणु-शरीर, (औदारिक, वैक्रिय, आहारक), उवंगा-तीन अंगोपांग, आगिइ–छह संस्थान, संघयण छह संहनन, जाइ - पांच जाति, गइ-चार गति, खगइ-दो विहायोगति, पुग्वि-चार आनुपूर्वी, जिणजिन नामकर्म, उसासंश्वासोच्छ्वास नामकर्म, उज्जोय -उद्योत नामकर्म, आयव-आतप नामकर्म, परघा-पराघात नामकर्म, तसवीसा-सादि बीस (स दशक और स्थावर दशक), गोय-दो गोत्र, वयणियं-दो वेदनीय । पंचसंग्रह और गो० कर्मकांड में ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों को इस प्रकार गिनाया है -- नाणंतरायदंसण धुवबंधि कसायमिच्छभयकुच्छा। अगुरुलघुनिमिणतेयं. उवधायं वण्ण चउकम्म। - पंचसंग्रह ३।१५ धादिति मिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिण वण्णचओ। सत्तेताल धुवाणं -गो० कर्मकांड १२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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