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परिशिष्ट-३
दलिकों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का ग्रहण करता है। इस प्रकार अन्तमुहर्त काल के अन्तिम समय तक असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकों का ग्रहण करता है।
यह निक्षेपण करने का काल अन्तर्मुहूर्त है और दलिकों की रचना रूप गुणश्रेणि का काल अपूर्वक रण और अनिवृत्तिकरण के कालों से कुछ अधिक जानना चाहिए । इस काल से नीचे-नीचे के उदयक्षण का अनुभव करने के बाद क्षय हो जाने पर बाकी के क्षणों में दलिकों की रचना करता है, किन्तु गुणश्रेणि को ऊपर की ओर नहीं बढ़ाता है। कहा है
गुणश्रेणि का काल दोनों करणों के काल से कुछ अधिक जानना चाहिए । उदय के द्वारा उसका काल क्षीण हो जाता है, अतः जो शेष काल रहता है, उसी में दलिकों का निक्षेपण किया जाता है ।
पंचसंग्रह में भी गुणश्रेणि का स्वरूप उपर्युक्त प्रकार बतलाया है। तत्संबंधी गाथा इस प्रकार है
घाइयठिइओ दलियं घेत्तु घेत्तु असंखगुणणाए ।
साहियदुकरण काले उदयाइ रयइ गुण से ढिं ।।७४६ अब लब्धिसार (दिगम्बर ग्रन्थ) के अनुसार गुणश्रेणि का स्वरूप बतलाते हैं
उदयाणभावलिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि खिवण ठें।
लोयाण मसंखेज्जो कमसो उक्कट्ठणो हारो ॥६८ जिन प्रकृतियों का उदय पाया जाता है, उन्हीं के द्रव्य का उदयावलि में निक्षेपण होता है । उसके लिए असंख्यात लोक का भागाहार जानना और जिनका उदय और अनुदय है, उन दोनों के द्रव्य का उदयावलि से बाह्य गुणश्रेणि में अथवा ऊपर की स्थिति में निक्षेपण होता है, उसके लिए अपकर्षण भागाहार (पल्य का असंख्यातवां भाग) जानना चाहिए ।
उक्कटिठद इगिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तत्थ ।
बहभागमिदं दव्व उव्वरिल्लठिदी णिक्खवदि ॥ ६६ अपकर्षण भागाहार का भाग देने पर एक भाग में पल्य के असंख्यातवें
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