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________________ ४४६ परिशिष्ट-३ घोटमान योगों (परावर्तमान योगों) का धारक असंज्ञी जाव नरकद्विक, देवाय तथा नरकायु का जवन्य प्रदेशबन्ध करता है। आहारकद्विक का अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती तथा चोथे अविरत गूणस्थान वाला (पर्याय के प्रथम समय में जघन्य उपपाद योग का धारक) तीर्थंकर प्रकृति और देवचतुष्क, कुल पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इन ग्यारह प्रकृतियों से शेष बची हुई १०१ प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्धक की विशेषता को बतलाते हैं--- चरिमअपुष्णभवत्थो तिविग्गहे पढमविग्गहम्मि ठिओ। सुहमणिगोवो बंधदि सेसाणं अबरबंधं तु ॥ २१७ लब्ध्यपर्याप्तक के ६०१२ भवों में से अन्त के भव को धारण करने वाला और विग्रहगति के तीन मोड़ों में से पहले मोड़ में स्थित सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष रही १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । कर्मग्रन्थ और गो० कर्मकांड, दोनों में १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्धक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव माना है। कर्मग्रन्थ में जन्म के प्रथम समय में उसको बन्धक बतलाया, लेकिन गो० कर्मकांड में लब्ध्यपर्याप्तक के ६०१२ भवों में से अन्तिम भव को धारण करने वाले को बतलाया है। गुणश्रेणि की रचना का स्पष्टीकरण उदयक्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रेणि कहते हैं। इस गुणश्रेणि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कर्मप्रकृति गा० १५ की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा है--- ___अधुना गुणश्रेणिस्वरूपमाह-यस्थिति कण्डक घातयति तन्मध्याइलिक गृहीत्वा उदयसमयादारभ्यान्तमुहूर्तचरमसमयं यावत् प्रतिसमयम संख्येयगुणनया निक्षिपति । उक्तं च उरिल्लठिइहितो चित्तणं पुग्गले उ सो खिवइ । उपयसमयस्मि थोवे तत्तो अ असंखगुणिए उ ।। बीयम्मि खितइ ममए तइए तत्तो असंखगुणिए उ । एवं समए समए अन्तमुहुत्तं तु जा पुन्नं ॥ एषः प्रथमसमयगृहीतदलिकनिक्षेपविधिः । एवमेव द्वितीयादिसमय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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