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पंचम कर्मग्रन्थ
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मतिज्ञानावरण आदि पांच, दर्शनावरण चार, अन्तराय पांच, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और साता वेदनीय, इन सत्रह प्रकृतियों का दसवें सूक्ष्मसपराय गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । नौवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में पुरुषवेदादि पांच का तीसरा प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का देश विरति नामक पांचवें गुणस्थान में, दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का चौथे अविरत गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । छह नोकषाय, निद्रा, प्रचला और तीर्थंकर, इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव करता है तथा मनुध्यायु, देवायु, असातावेदनीय, देवगति आदि देवचतुष्क, वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभगत्रिक, इन तेरह प्रकृतियों का उत्कष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि दोनों ही करते हैं । आहारकद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्त गुणस्थान वाला करता है । इन चौवन प्रकृतियों के सिवाय शेष रही छियासठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट योगों से करता है ।
उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामियों का कथन करने के बाद अब जघन्य प्रदेशबन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं । मूल प्रकृतियों के बन्धक के बारे में बताया है कि
सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स पढमे जहण्णये जोगे । सत्तण्हं तु जहणं आउगबंधेवि आउस्स ।।२१५
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के अपने पर्याय के पहले समय में जघन्य योगों से आयु के सिवाय सात मूल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध होता है । आयु का वध होने पर उसी जीव के आयु का भी जघन्य प्रदेशबन्ध होता है । आयुकर्म का बन्ध सदैव नहीं होता रहता है इसीलिये आयुकर्म का अलग से कथन किया है । अर्थात् आठों कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव करता है ।
मूल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध बतलाने के बाद उत्तर प्रकृति के लिये कहते हैं कि
घोडणजोगोऽसण्णी णिरयसुरणिरय आउगजहणं । अपमतो आहारं अयदो तित्थं च देषचऊ ॥ २१६
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