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________________ '४३२ परिशिष्ट-२ ‘भाग को प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग हास्य और शोक में से जिसका बंध हो, उसे देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग भय को देना चाहिये और शेष एक भाग जुगुप्सा को देना चाहिये। अपने-अपने एक भाग में पीछे का बहुभाग मिलाने से अपना-अपना द्रव्य होता है । नामकर्म --तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तेजस, कार्मण ये तीन शरीर, हुंड संस्थान, वर्गचतुष्क, तिर्यंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकोति और निर्माण, इन तेईस प्रकृतियों का एक साथ बंध मनुष्य अथवा तिर्यच मिथ्यादृष्टि करता है । नामकर्म को जो द्रव्य मिलता है उसमें आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग को अलग रख बहुभाग के इक्कीस समान भाग करके एक-एक प्रकृति को एक-एक भाग देना चाहिये। क्योंकि ऊपर लिखी तेईस प्रकृतियों में औदारिक, तेजस और कार्मण ये तीनों प्रकृतियां एक शरीर नाम पिंड प्रकृति के ही अवान्तर भेद हैं। अतः इनको पृथक-पृथक द्रव्य न मिलकर एक शरीर नामकर्म को ही हिस्सा मिलता है। इसीलिये इक्कीस ही भाग किये जाते हैं । _शेष एक बहुभाग में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर अंत से आदि की ओर के क्रम के अनुसार बहुभाग को देना चाहिये। जैसे कि शेष एक भाग में आवली के असंख्यातवें भाग का शग देकर बहुभाग अंत की निर्माण प्रकृति को देना चाहिये। शेष भाग में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर बहुभाग अयशःकीर्ति को देना। शेष एक भाग में पुनः आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर बहुभाग अनादेय को देना चाहिए। इसी प्रकार जो-जो एक भाग शेष रहे उसमें प्रतिभाग का भाग दे-देकर बहुभाग दुर्भग, अशुभ आदि को क्रम से देना चाहिये । अंत में जो एक भाग रहे, वह तिर्यंचगति को देना चाहिये । पहले के अपने-अपने समान भाग में पीछे का भाग मिलाने से अपनाअपना द्रव्य होता है। जहाँ पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस प्रकृतियों का एक साथ बंध होता है, वहाँ भी इसी प्रकार से बटवारे का क्रम जानना चाहिये। किन्तु जहाँ केवल एक यशःकीर्ति का हो बंध होता है, वहां नामकर्म का सब द्रव्य इस एक ही प्रकृति को मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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