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पंचम कर्मग्रन्थ
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नामकर्म के उक्त बंधस्थानों में जो पिंडप्रकृतियां हैं, उनके द्रव्य का बटवारा उनकी अवान्त र प्रकृतियों में होता है। जैसे ऊपर के बंधस्थानों में शरीर नाम पिंडप्रकृति के तीन भेद हैं अतः बटवारे में शरीर नामकम को जो द्रव्य मिलता है, उसमें प्रतिभाग का भाग देकर, बहुभाग के तीन समान भाग करके तीनों को एक-एक भाग देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग कार्मग शरीर को देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग तैजस को देना चाहिये और शेष एक भाग औदारिक को देना चाहिये। ऐसे ही अन्य पिंडप्रकृतियों में भी समझना चाहिये । जहाँ पिंड प्रकृति की अवान्तर प्रकृतियों में से एक ही प्रकृति का बंध होता हो, वहाँ पिंडप्रकृति का सब द्रव्य उस एक ही प्रकृति को देना चाहिये।
अंतराय और नाम कर्म के बटवारे में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक द्रव्य प्रकृ. तियों को देने का कारण प्रारम्भ में ही बतलाया जा चुका है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय की उत्तर प्रकृतियों में क्रम से हीन-हीन द्रव्य बाँटा जाता है और अंतराय व नाम कर्म की प्रकृतियों में क्रम से अधिकअधिक द्रव्य ।
वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की एक समय में एक ही उत्तर प्रकृति बंधती है, अतः मूल प्रकृति को जो द्रव्य मिलता है, वह उस एक ही प्रकृति को मिल जाता है। उसमें बटवारा नहीं होता है।
इस प्रकार से गो० कर्मकांड के अनुसार कर्म प्रकृतियों में पुदगल द्रव्य का बटवारा जानना चाहिये । अव कर्मप्रकृति (प्रदेशबंध गा० २८) में बतायी गई उत्तर प्रकृतियों में कर्मलिकों के विभाग की हीनाधिकता का कथन करते हैं । उससे यह जाना जा सकता है कि उत्तर प्रकृतियों में विभाग का क्या और कैसा क्रम है तथा किस प्रकृति को अधिक भाग मिलता है और किस प्रकृति को कम।
पहले उत्कृष्ट पद की अपेक्षा अल्पवहुत्व बतलाते हैं ।
ज्ञानावरण ---- १. केवलज्ञानावरण का भाग सबसे' कम, २. मनपर्याय. ज्ञानावरण का उससे अनंत गुणा, ३. अवधिज्ञानावरण का मनपर्यायज्ञाना
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