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________________ शतक इस प्रकार से अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शनत्रिक का उपशमन करने के बाद चारित्रमोहनीय के उपशम का क्रम प्रारंभ होता है। ___ चारित्रमोहनीय का उपशम करने के लिये पुनः यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करता है । लेकिन इतना अंतर है कि सातवें गुणस्थान में यथाप्रवृत्तकरण होता है, अपूर्वकरण अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में तथा अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में होता है । यहां भी स्थितिघात आदि कार्य होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि चौथे से सातवें गुणस्थान तक जो अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण होते हैं, उनमें उसी प्रकृति का गुणसंक्रमण होता है जिसके संबन्ध में वे परिणाम होते हैं। किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थान में संपूर्ण अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है। अपूर्वकरण के काल में से संख्यातवां भाग बीत जाने पर निद्राद्विक-निद्रा और प्रचला—का बंधविच्छेद होता है। उसके बाद और काल बीतने पर सुरद्विक, पंचेन्द्रियजाति आदि तीस प्रकृतियों का तथा अंतिम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बंधविच्छेद होता है।' मुहर्त प्रमाण करता है। उपशमन करके प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणस्थान में हजारों बार आवागमन करके चारित्रमोहनीय की उपशमना के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करता है। तीसरे अनिवृत्तिकरण की विशेषता का कथन आगे की गाथाओं में किया गया। १ अपूर्वकरण गुणस्थान में बंधविच्छिन्न होने वाली प्रकृतियां इस प्रकार हैं अडवन्न अपुवाइमि निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे । सुरदुग पणिदि सुखगइ तसनव उरलविणु तणुवंगा ॥ समचउर निमिण जिण वण्णअगुरुलहूचउ छलंसि तीसंतो। चरमे छवीसबंधो हासरईकुच्छभयभेओ। -द्वितीय कर्मग्रन्थ गा० १० १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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