________________
पचम कर्मग्रन्थ
३७५
चउगइया पज्जत्ता तिन्निवि संयोयणा विजोयंति ।
करणेहि तोहिं सहिया नंतरकरणं उक्समो वा । चौथे, पांचवें तथा छठे गुणस्थानवर्ती यथायोग्य चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों के द्वारा अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन करते हैं । किन्तु यहां न तो अन्तरकरण होता और न अनन्तानुबंधी का उपशम ही होता है।
अनंतानुबंधी का उपशम करने के बाद दर्शनमोहनीयत्रिकमिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का उपशम करता है। इनमें से मिथ्यात्व का उपशम तो मिथ्या दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि (क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि) करते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का उपशम वेदक सम्यग्दृष्टि ही करता है। मिथ्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है तब मिथ्यात्व का उपशम • करता है। किन्तु उपशम श्रेणि में यह प्रथमोशम सम्यक्त्व उपयोगी नहीं होता लेकिन द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उपयोगी होता है। क्योंकि इसमें दर्शनत्रिक का संपूर्णतया उपशम होता है । इसीलिये यहां दर्शनत्रिक का उपशमक वेदक सम्यग्दृष्टि को माना है।'
१ दर्शनमोह के उपशम के संबंध में कर्मप्रकृति का मंतव्य इस प्रकार है--
अह्वा दंसणमोहं पुव्वं उवसामइत्तु सामन्ने । पढमठिइमावलियं करेइ दोण्हं अणुदियाणं ॥३३ अद्धापरिवित्ताऊ पमत्त इयरे सहस्ससो किच्चा । करणाणि तिन्नि कुणए तइयविसेसे इमे सुणसु ॥३४
यदि वेदक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणि चढ़ता है तो पहले नियम से दर्शन-मोहनीयत्रिक का उपशम करता है और इतनी विशेषता है कि अन्तरकरण करते हुए अनुदित मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व की प्रथम स्थिति को आवलिका प्रमाण और सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति को अन्त
(शेष अगले पृष्ठ पर देखें) Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org