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________________ ३७४ शतक और उसके बाद प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे दलिकों का अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में ही स्थितिबंध भी अपूर्व अर्थात् बहुत थोड़ा होता है। अपूर्वकरण का काल समाप्त होने पर तीसरा अनिवृत्तिकरण होता है । इसमें भी प्रथम समय से ही स्थितिघात आदि अपूर्व स्थितिबंध पर्यन्त पूर्वोक्त पांचों कार्य एक साथ होने लगते हैं । इसका काल भी अन्तमुहर्त प्रमाण है। उसमें से संख्यात भाग बीत जाने पर जब एक भाग शेष रहता है तब अनंतानुबंधी कषाय के एक आवली प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर शेष निषेकों का भी पूर्व में बताये मिथ्यात्व के अन्तरकरण की तरह इनका भी अन्तरकरण किया जाता है । जिन अन्तमुहर्त प्रमाण दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है, उन्हें वहां से उठाकर बंधने वाली अन्य प्रकृतियों में स्थापित कर दिया जाता है। अन्तरकरण के प्रारंभ होने पर दूसरे समय में अनन्तानुबन्धी कषाय के ऊपर की स्थिति वाले दलिकों का उपशम किया जाता है। यह उपशम पहले समय में थोड़े दलिकों का होता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम किया जाता है। इसी प्रकार अन्तमुहूर्त काल तक क्रमशः असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों का प्रतिसमय उपशम किया जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि इतने समयों में संपूर्ण अनंतानुबंधी कषाय का उपशम हो जाता है और यह उपशम इतना सुदृढ़ होता है कि उदय, उदीरणा, निधत्ति आदि करणों के अयोग्य हो जाता है । यही अनंतानुबंधी कषाय का उपशम है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मानना है कि अनंतानुबंधी कषाय का उपशम नहीं होता है किंतु विसंयोजन होता है। इस मत का उल्लेख कर्मप्रकृति (उपशमकरण) गा० ३१ में किया गया है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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