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पंचम कर्मग्रन्थ
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प्रकृति सहित नामकर्म के तीस प्रकृतिक स्थान का बंध करता हुआ तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबंध करता है। नरकगति में भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है किन्तु देवगति में जघन्य योग वाले अनुत्तरवासी देवों का ग्रहण किया जाता है, क्योंकि नरकगति में इतना "जघन्य योग नहीं होता है। अतः नरकगति के सभ्यग्दृष्टि जीव के तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबन्ध नहीं बतलाया है । तिर्यंचगति में तीर्थकर प्रकृति का बंध ही नहीं होता है और मनुष्यगति में जन्म के प्रथम समय में तो तीर्थंकर प्रकृति सहित नामकर्म के उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थान का बंध होता है, अतः प्रकृति कम होने से वहां अधिक भाग मिलता है तथा तीर्थंकर सहित इकतीस प्रकृतिक वंधस्थान का बंध संयमी के ही होता है और वहां योग भी अधिक होता है । अतः तीस प्रकृतिक स्थान के बन्धक देवों के ही तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबंध बतलाया है।
देवद्विक और वैक्रियद्विक का जघन्य प्रदेशबंध देवगति या नरकगति से आकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के उस समय होता है जब वह देवगति के योग्य नामकर्म के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करता है। क्योंकि देव और नारक तो इन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं करते हैं और भोगभूमिया तिर्यंच जन्म लेने के प्रथम समय में इनका बंध करते भी हैं किन्तु वे देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थान का ही बंध करते हैं। जिससे उनको बटवारे के समय अधिक द्रव्य मिलता है। यही बात अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक मनुष्य के लिये भी समझना चाहिये । अतः उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक मनुष्य के ही देवद्विक और वैक्रियद्विक इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध बतलाया है।
उक्त ११ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही १०६ प्रकृतियों का जघन्य
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