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शतक
प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने भव के पहले समय में करता है। क्योंकि उसके प्रायः सभी प्रकृतियों का बंध होता है और सबसे जघन्य योग भी उसी के होता है ।। ___ इस प्रकार से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों को जानना चाहिये ।' अब आगे की गाथा में प्रदेशबंध के सादि आदि भंगों को बतलाते हैं।
दसणछगभयकुच्छावितितुरियकसाय विग्घनाणाणं ।
मूलछगेऽणुक्कोसो चउह दुहा सेसि सव्वत्थ ॥४॥. __शब्दार्थ-दसंणछग-दर्शनावरणषट्क, भयकुच्छा-भय और जुगुप्सा, वितितुरियकसाय - दूसरी, तीसरी और चौथी कषाय, विग्घनाणाणं--पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, मूलछगे-मूल छह प्रकृतियों का, अणुक्कोसो - अनुत्कृष्ट प्रदेशबध, चउह -चार प्रकार का, दुहा-दो प्रकार का, सेसि-शेष तीन प्रकार के बंधों में, सव्वत्थ-सर्वत्र होते हैं।
गाथार्थ-दर्शनावरण कर्म की छह प्रकृतियों का, दूसरी तीसरी और चौथी कषाय का, पांच अन्तराय और पांच ज्ञानावरण का, छह मूल कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चारों प्रकार का होता है। उक्त प्रकृतियों के तथा उनके सिवाय शेष प्रकृतियों के तीन बंध दो प्रकार के होते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में प्रदेशबंध के सादि आदि भंगों का विवेचन किया गया है।
१ गो० कर्मकांड गा० २११ से २१७ में उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध में
स्वामियों को बतलाया है। जो प्राय: कर्म ग्रन्थ के समान है और शेष १०६ प्रकृतियों के जघन्य बंधक के बारे में कुछ विशेषता भी बतलाई है
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