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________________ शतक ३४६ मिलता है। इसीलिये इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान का निर्देश किया गया है। ___ इसी तरह परावर्तमान योग वाला असंज्ञी जीव नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु) और देवायु का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है - असन्नी निरयतिगसुराउ । इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंधक असंज्ञी पर्याप्त जीव को मानने का कारण यह है कि पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तो नरकगति और देवगति में उत्पन्न ही नहीं होते हैं, जिससे उनके उक्त प्रकृतियों का वन्ध ही नहीं होता है और असंज्ञी अपर्याप्त के भी इतने विशुद्ध परिणाम नहीं होते हैं जिससे देवगति योग्य प्रकृतियों का बंध कर सके और न इतने संक्लेश रूप परिणाम कि नरकगति योग्य प्रकृतियों का बंध हो सके। __उक्त चार प्रकृतियों के बंधक असंज्ञी पर्याप्तक के परावर्तमान योग वाला मानने का कारण यह है कि यदि एक ही योग में चिरकाल तक रहने वाला लिया जायेगा तो वह तीव्र योग वाला हो जायेगा। इसीलिये परावर्तमान योग को ग्रहण किया है । क्योंकि योग में परिवर्तन होते रहते तीत्र योग नहीं हो सकता है । अतः परावर्तमान योग वाला आठ कर्मों का बन्धक पर्याप्त असंजी जीव अपने योग्य जघन्य योग के रहते हुए नरकत्रिक और देवायु इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध करता है। देवद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी), वैक्रिय द्विक (वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग) और तीर्थंकर इन पांच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव करता है । इसका कारण नीचे स्पष्ट किया जाता है___कोई मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके देवों में उत्पन्न हुआ। वहां वह उत्पत्ति के प्रथम समय में ही मनुष्यगति के योग्य तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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