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पंचम कर्मग्रन्थ
३०६ गुणा होने पर भी उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ होता है। यानी परिणामों के उत्तरोत्तर विशुद्ध होने से उत्तरोत्तर कम-कम समय में अधिकअधिक द्रव्य की निर्जरा होती है।
इस प्रकार गुणश्रेणि का विधान जानना चाहिये । गुणश्रोणि के उक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जीव ज्यों-ज्यों आगे के गुणस्थानों में बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसके असंख्यातगुणी निर्जरा होती है और क्रमशः संक्लेश की हानि तथा विशुद्धि का प्रकर्ष होने पर आगे-आगे के गुणस्थान कहलाते हैं । अतः अब आगे की गाथा में गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल बतलाते हैं।
पलियासंखंसमुहू सासणइयरगुण अंतरं हस्सं । गुरु मिच्छी बेछसट्ठी इयरगुणे पुग्गलद्धंतो ॥४॥
शब्दार्थ-पलियासखंसमुहू-पल्य का असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त, सासणइयरगुण-सासादन और दूसरे गुणस्थानों का, अंतरं-अन्तर, हस्सं जघन्य, गुरु-उत्कृष्ट, मिच्छीमिथ्यात्व में, बे छसट्ठी-दो छियासठ सागरोपम, इयरगुणे-दूसरे गुणस्थानों में, पुग्गलातो-- कुछ न्यून अर्धपुद्गल परावर्त ।
गाथार्थ-सासादन और दूसरे गुणस्थानों का जघन्य अन्तर अनुक्रम से पल्योपम का असंख्यातवां भाग और अन्तमुहूर्त है । मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तर दो बार के छियासठ सागर अर्थात् १३२ सागर है और अन्य गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त है ।
विशेषार्थ-पूर्व कथन से यह स्पष्ट हो चुका है कि गुणश्रोणियों के जो सम्यक्त्व, देश विरति आदि नाम हैं, वे प्रायः गुणस्थान ही हैं । जैसे कि सम्यक्त्व गुण का जिस स्थान में प्रादुर्भाव होता है वह सम्यक्त्व गुणस्थान, जिस स्थान में देशविरति गुण प्रखर होता है वह देशविरति
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