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शतक
गुणस्थान कहा जाता है आदि । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । अतः उक्त गुणश्रेणियों का संबंध गुणस्थानों के साथ होने के कारण गाथा में गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल बतलाया है । कोई जीव किसी गुणस्थान से च्युत होकर पुनः जितने समय के बाद उस गुणस्थान को प्राप्त करता है, वह समय उस गुणस्थान का अन्तरकाल कहलाता है। ___ सर्वप्रथम गुणस्थानों का जघन्य अन्तराल बतलाते हुए कहा हैपलियासंखंसमुहू सासणइयरगुण अंतरं हस्सं - सासादन नामक दूसरे गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल पल्य के असंख्यातवें भाग और शेष गुणस्थानों का अन्तर अन्तमुहूर्त है । जिसको यहां स्पष्ट करते हैं। . सासादन गुणस्थान के जघन्य अन्तरकाल को पल्य के असंख्यातवें भाग इस प्रकार समझना चाहिए कि कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अथवा सम्यक्त्व मोहनीय और 'मिथ्यात्व मोहनीय की उद्वलना' कर देने वाला सादि मिथ्यादृष्टि जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सासादन सम्यग्दृष्टि होकर मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है। यदि वही जीव उसी क्रम से पुनः सासादन गुणस्थान को प्राप्त करे तो कम-से-कम पल्य के असंख्यातवें भाग काल के बाद ही प्राप्त करता है। इसका कारण यह है कि सासादन गुणस्थान से मिथ्यात्व गुणस्थान में आने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता अवश्य रहती है। इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता होते हुए पुनः औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकता है और औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना सासादन गुणस्थान नहीं हो सकता । अतः मिथ्यात्व में जाने के बाद जीव सम्यक्त्व
और मिथ्यात्व इन दोनों मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की प्रतिसमय १यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों के बिना ही किसी प्रकृति को अन्य प्रकृति
रूप परिणमाने को उद्वलन कहते हैं ।
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