SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ हो। दर्शनमोहनीय की क्षपणा का क्रम भी अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना जैसा है। यहां भी पूर्ववत् तीन करण होते हैं और अपूर्वकरण में गुणश्रेणि आदि कार्य होते हैं। उपशम श्रोणि का आरोहण करने वाला जीव भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है, लेकिन इतना अंतर है कि यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में करता है, अपूर्वकरण-अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में करता है । यहां भी पूर्ववत् स्थितिघात गुणश्रोणि आदि कार्य होते हैं । अतः उपशमक भी क्रम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। चारित्रमोहनीय का उपशम करने के बाद उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर भी जीव गुणश्रेणि रचना करता है। उपशान्तमोह का काल अन्तमुहूर्त है, और उसके संख्यातवें भाग काल में गुणश्रोणि की रचना होती है, जिससे यहां पर भी जीव प्रतिसमय असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । ___ ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जब जीव छठे गुणस्थान तक आकर क्षपक श्रेणि चढ़ता है अथवां उपशमश्रोणि पर आरूढ़ हुए बिना ही सीधा क्षपक श्रेणि पर चढ़ता है तो वहां भी यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन तीनों करणों को करता है और उनमें उपशमक और उपशान्तमोह गुणस्थान से भी असंख्यातगणी निर्जरा करता है। इसी प्रकार क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली नामक गुणश्रेणियों भी उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा समझना चाहिए। इन ग्यारह गुणश्रेणियों में से प्रत्येक का काल अन्तमुहूर्त-अन्तमुहूर्त होने पर भी प्रत्येक के अन्तमुहूर्त का काल उत्तरोत्तर हीन होता है तथा निर्जरा द्रव्य का परिमाण सामान्य से असंख्यातगुणा, असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy