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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३०७ और सर्वविरति जीव करते हैं।' अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तो चारों गति के लेना चाहिये और देशविरति मनुष्य व तिर्यच होते हैं तथा सर्वविरति मनुष्य ही होते हैं। ___ जो जीव अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करने के लिये उद्यत होता है वह यथाप्रवृत्त आदि तीनों करणों को करता है। यहां इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय से ही गुणसंक्रमण भी होने लगता है यानी अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी कषाय के थोड़े दलिकों का शेष कषायों में संक्रमण करता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का पर कषाय रूप संक्रमण करता है। यह क्रिया अपूर्वकरण के अंतिम समय तक होती है और उसके बाद अनिवृत्तिकरण में गुणसंक्रमण और उद्वलन संक्रमण के द्वारा दलिकों का विनाश कर देता है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन में प्रति समय असंख्यात'गुणी निर्जरा जाननी चाहिये । ___दर्शनमोहनीय का क्षपण जिन काल में (केवलज्ञानी के विद्यमान रहने के समय में) उत्पन्न होने वाला वज्रऋषभनाराच संहनन का धारक मनुष्य आठ वर्ष की उम्र के बाद करता है। अर्थात् दर्शनमोहनीय की क्षपणा के लिये समय तो केवलज्ञान प्राप्त आत्मा की विद्यमानता का है और क्षपणा करने वाला मनुष्य वज्रऋषभनाराच संहनन का धारक हो तथा कम-से-कम अवस्था आठ वर्ष से ऊपर चउगइया पज्जता तिन्निवि संयोयणा विजोयंति । करणेहिं तीहिं सहिया नंतरकरणं उवसमो वा ।। -कर्मप्रकृति उपशमनाकरण ३१ दसणमोहे वि तहा कयकरणद्धा य पच्छिमे होइ । विणकालगो मणुस्सो पट्ठवगो अट्ठवासुप्पि ॥ -कर्मप्रकृति उपरामनाकरण, ३२ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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