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________________ २६ जानी चाहिये । अल्प समय में उत्तरोत्तर कर्मपरमाणुओं की अधिक से-अधिक संख्या में निर्जरा होने को गुणश्रेणि निर्जरा कहते हैं । इस प्रकार की निर्जरा तभी हो सकती है जब आत्मा के भावों में उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि होती है । उत्तरोत्तर विशुद्धि स्थानों पर आरोहण करने से ही अधिक से अधिक संख्या में निर्जरा होती है । गाथा में विशुद्धिस्थानों के क्रम से नाम कहे हैं । जिनमें उत्तरोत्तर अधिक अधिक निर्जरा होती है । ये स्थान गुणश्रेणि निर्जरा अथवा गुणश्र ेणि रचना का कारण होने से गुणश्र ेणि कहे जाते हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं 1 १ सम्यक्त्व (सम्यक्त्व की प्राप्ति होना), २ देशविरति, ३ सर्वविरति ४ अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन, ५ दर्शनमोहनीय का क्षपण, ६ चारित्रमोह का उपशमन, ७ उपशांतमोह, ८ क्षपण, र्ट क्षीणमोह, १० सयोगिकेवली और ११ अयोगिकेवली । ' इनका संक्षेप में अर्थ इस प्रकार है कि जीव प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये अपूर्वकरण आदि करण करते समय असंख्यातगुणी १ संमत्तदेसमनुन्नविरइ उत्पत्तिअणविसंजोगे । दमणखत्रणे मोहस्स समणे उवमंत खवगे य ॥ शतक खोणाइनिगे असंखगुणियगुण से ढिदलिय जह्कमसो । ममत्ता इक्कारसह कालो उ संखसे ॥ 1 -- पंचसंग्रह ३१४,३१५ सम्यक्त्व देशविरति और संम्पूर्ण विरति की उत्पत्ति में, अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन में, दर्शनमोहनीय के क्षपण में मोहनीय के उपशमन में, उपशान्तमोह में क्षपक श्रेणि में और क्षीणकषाय आदि तीन गुणस्थानो में असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है तथा सम्यक्त्व आदि ग्यारह गुणश्रेणियों का काल क्रमश: संख्यातवें भाग, संख्यातवें मारा है । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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