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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २१७ सम्मदरसम्वविरई अणविसंजोयदंसखवगे य । मोहसमसंतखवगे खीणसजोगियर गुणसेढी ।।८।। शब्दार्थ-सम्मदरसव्वविरई - सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, अणविसजोय---अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन, दसखवगेदर्शनमोहनीय का क्षपण, मोहसम-मोहनीय का उपशमन, संतउपशान्तमोह, खवगे क्षरण, खीण --क्षीणमोह सजोगियर - सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, गुणसेढी~गुणश्रेणि । गाथार्थ – सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, अनन्तानुबंधी का विसंयोजन, दर्शनमोहनीय का क्षपण, चारित्रमोहनीय का उपशमन, उपशान्तमोह, क्षपण, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये गुणश्रेणियां हैं। विशेषार्थ - यद्यपि बद्ध कर्मों की स्थिति और रस का घात तो बिना वेदन किये ही शुभ परिणामों के द्वारा किया जा सकता है किन्तु निर्जरा के लिये उनका वेदन होना जरूरी है यानी कर्मों के दलिकों का वेदन किये बिना उनकी निर्जरा नहीं हो सकती है। यों तो जीव प्रतिसमय कर्मदलिकों का अनुभवन करता रहता है और उससे निर्जरा होती है। कर्मों की इस भोगजन्य निर्जरा को औपक्रमिक निर्जरा अथवा सविपाक निर्जरा कहते हैं । किन्तु इस तरह से एक तो परिमित कर्मदलिकों को ही निर्जरा होती है और दूसरे इस भोगजन्य निर्जरा के साथ नवीन कर्मों के बंध का क्रम भी चलता रहता है । अर्थात् इस भोगजन्य निर्जरा के द्वारा नवीन कर्मों का बंध होता रहता है, जिसके कर्मनिर्जरा का वास्तविक रूप में फल नहीं निकलता है, जीव कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता है.। अतः कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक कर्मपरमाणुओं का क्षय होना आवश्यक है और उत्तरोत्तर उनकी संख्या बढ़ती ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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