SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक प्रकृति का भी बंधविच्छेद हो जाये तो उनके हिस्से का द्रव्य उनकी मूल प्रकृति के अन्तर्गत विजातीय प्रकृतियों को मिलता है । यदि उनः विजातीय प्रकृतियों का भी बंध रुक जाता है तो उस मूल प्रकृति को द्रव्य न मिलकर अन्य मूल प्रकृतियों को द्रव्य मिल जाता है । जैसे कि स्त्यानद्धित्रिक का बंधविच्छेद होने पर उनके हिस्से का द्रव्य उनकी संजातीय प्रकृति निद्रा और प्रचला को मिलता है और निद्रा व प्रचला का भी बंधविच्छेद होने पर उनका द्रव्य अपनी ही मूल प्रकृति के अन्तर्गत चक्षुदर्शनावरण आदि विजातीय प्रकृतियों को मिलता है । उनका भी बंधविच्छेद होने पर ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में सब द्रव्य सातावेदनीय को ही मिलता है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बारे में भी समझना चाहिए । सारांश यह है कि किसी प्रकृति का बंधविच्छेद होने पर उसका भाग समान जातीय प्रकृति को मिल जाता है और उस समान जातीय प्रकृति का भी बंधविच्छेद होने पर मूल प्रकृति के अन्तर्गत उनकी विजातीय प्रकृतियों का मिलता है। यदि उस मूल प्रकृति का ही विच्छेद हो जाये तो विद्यमान अन्य मूल प्रकृतियों को वह द्रव्य प्राप्त होने लगता है। ___ इस प्रकार बताई गई रीति के अनुसार मूल और उत्तर प्रकृतियों को कर्मदलिक मिलते हैं' और गुणश्रोणि रचना के द्वारा ही जीव उन कर्मदलिकों के बहुभाग का क्षपण करता है । अतः अब आगे गुणश्रेणि का स्वरूप, उसकी संख्या और नाम बतलाते हैं । सर्वप्रथम गुणश्रोणि की संख्या और नामों को कहते हैं कि१ गो० कर्मकांड गा० १६६ से २०६ तक उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के बटवारे का वर्णन किया है तथा कर्मप्रकृति (प्रदेशबध गा २८) में दलिकों के विभाग का पूरा-पूरा विवरण तो नही दिया है । किन्तु उत्तर प्रकृतियों में कर्मदलिकों के विभाग की हीनाधिकता बतलाई है। उक्त दोनों ग्रन्थों का मंतव्य परिशिष्ट में दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy