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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २६६ असंख्यातगुणी निर्जरा करता है तथा सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद भी उसका क्रम चालू रहता है । यह पहली सम्यक्त्व नाम की गुणश्रोणि है । आगे की अन्य गुणश्रेणियों की अपेक्षा इस श्रेणि में सम्यक्त्वप्राप्ति के समय में-मंद विशुद्धि रहती है अतः उनकी अपेक्षा से इसमें कम कर्मदलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है किन्तु उनके वेदन करने का काल अधिक होता है। परन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व की स्थिति की अपेक्षा कर्मदलिकों की संख्या अधिक और समय कम समझना चाहिये । इस सम्यक्त्व नाम की प्रथम गुणश्रोणि को कर्मनिर्जरा का बीज कह सकते हैं। सम्यक्त्व-प्राप्ति के पश्चात् जीव जब विरति का एकदेश पालन करता है तब देशपिरात नाम की दूसरी गुणश्रोणि होती है । इसमें प्रथम श्रेणि की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक कर्मदलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है और वेदन करने का समय उससे संख्यात गुणा कम होता है। सम्पूर्ण विरति का पालन करने पर तीसरी गुणश्रोणि होती है। देशविरति से इसमें अनन्त गुणी विशुद्ध होती है जिससे । इसमें पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक कर्मदलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है किन्तु उसके वेदन करने का समय उससे संख्यात गुणा हीन होता है। ___ जब जीव अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करता है अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय के समस्त कर्मदलिकों को अन्य कषाय रूप परिणमाता है तब चौथी गुणश्रोणि होती है। दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों-सम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व और मिथ्यात्व-का विनाश करते समय पांचवी दर्शनमोहनीय का क्षपण गुणश्रोणि होती है। आठवें नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का उपशमन करते समय चारित्रमोहनीय का उपशमन नामक छठी गुणश्रेणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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