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________________ २६८ शतक अनंत होती हैं । जैसे समस्त लोकाकाश में जो कुछ एकाकी परमाणु पाये जाते हैं, उन्हें पहली वर्गणा कहते हैं। दो प्रदेशों के मेल से बनने वाले स्कंधों की दूसरी वर्गणा, तीन प्रदेशों के मेल से बनने वाले स्कंधों की तीसरी वर्गणा कहलाती है । इसी प्रकार एक-एक परमाणु बढ़तेबढ़ते संख्यात प्रदेशी स्कंधों की संख्याताणु वर्गणा, असंख्यात प्रदेशी स्कंधों को असंख्याताणु वर्गणा, अनंत प्रदेशी स्कंधों को अनन्ताणु वर्गणा और अनंतानन्त प्रदेशी स्कंधों की अनन्तानन्ताणु वर्गणा समझना चाहिये। थे वर्गणायें अग्रहणयोग्य और ग्रहणयोग्य, दो प्रकार को हैं । जो वर्गणायें अल्प परमाणु वालो होने के कारण जीव द्वारा ग्रहण नहीं की जातों, उन्हें अग्रहणवर्गणा कहते हैं । अभव्य जीवों की राशि से अनंतगुणे और सिद्ध जीवों की राशि के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणुओं से बने स्कंध यानी इतने परमाणु वाले स्कंध जोव के द्वारा ग्रहण करने योग्य होते हैं और जीव उन्हें ग्रहण करके औदारिक शरीर रूप परिणमाता है । इसलिये उन्हें औदारिक वर्गणा कहते हैं । किन्तु औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य वर्गणाओं में यह वर्गणा सबसे जघन्य होतो है, उसके ऊपर एक-एक परमाणु बढ़ते स्कंधों को पहलो, दूसरी, तीसरी आदि अनन्त वर्गणायें औदारिक शरीर के ग्रहण योग्य होती हैं । जिससे औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा से अनन्तवें व्यापी होने से उसकी अवगाहना लोकप्रमाण होगी। वर्गणा और स्कंध को जहाँ एकार्थक कहा गया हो यहाँ तो अवगहना संबधी आपत्ति नहीं । किन्तु जहां स्वजातीय स्कंधों के समूह का नाम वर्गणा कहा जाये वहां अवगाहना स्कन्ध की ली जाये तो बराबर एकरूपता बनती है । अतः कर्मग्रन्थ की टीका के अनुसार रकंध की अवगाहना लेना चाहिये किन्तु वर्गणा की नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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