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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २६७ ग्रहणयोग्य वर्गणा होती है तथा एक-एक परमाणु की वृद्धि से ग्रहणयोग्य वर्गणा से अन्तरित अग्रहणयोग्य वर्गणा होती है। विशेषार्थ-यह लोक परमाणु और स्कंध रूप पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है और पुद्गलकाय अनेक वर्गणाओं में विभाजित है, जिनमें एक कर्मवर्गणा भी है। ये वर्गणायें जीव के योग और कषाय का निमित्त पाकर कर्म रूप परिणत हो जाती हैं । पुद्गल के एक परमाणु के अवगाहस्थान को प्रदेश कहते हैं। अतः कर्म रूप परिणत हुए पुद्गल स्कंधों का परिमाण परमाणु द्वारा आंका जाता है कि अमुक समय में इतने परमाणु वाले पुद्गलस्कन्ध अमुक जीव को कर्म रूप में परिणत हुए हैं, इसी को प्रदेशबंध कहते है । अतः प्रदेशबंध का स्वरूप समझने के पूर्व कर्मवर्गणा का ज्ञान होना जरूरी है। कर्मवर्गणा का स्वरूप समझने के लिए भी उसके पूर्व की औदारिक आदि वर्गणाओं का स्वरूप जान लिया जाये । इसीलिये उन-उन वर्गणाओं का भी स्वरूप समझना चाहिये। इस कारण औदारिक आदि वर्गणाओं का यहां स्वरूप कहते हैं। __ये औदारिक आदि वर्गणायें दो प्रकार की होती हैं-ग्रहणयोग्य, अग्रहणयोग्य । अग्रहणवर्गणा को आदि लेकर कर्मवर्गणा तक वर्गणाओं का स्वरूप गाथा में स्पष्ट किया जा रहा है । समान जातीय पुद्गलों के समूह को वर्गणा' कहते हैं । ये वर्गणायें १ कर्मग्रन्थ की टीका में स्वजातीय स्कंधों के समूह का नाम वर्गणा कहा है। जबकि कर्मप्रकृति की टीका में स्कंध और वर्गणा को एकार्थक कहा है । क्योंकि स्कंध - वर्गणा की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग कही है । यदि स्वजातीय स्कंधों के समूह को वर्गणा कही जाये तो उसके लोक (शेष अगले पृष्ठ पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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