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________________ २६४ शतक है । अशुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध और शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामी बंधक करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय अशुभ हैं अतः इनका जघन्य अनुभाग बंध अपक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत समय में होता है और मोहनीय का बंध नौवें गुणस्थान तक होता है । जिससे नौवें गुणस्थान के अंत में उसका जघन्य अनुभाग बंध होता है। इन गुणस्थानों के सिवाय शेष सभी स्थानों में उक्त चारों कर्मों का अजघन्य अनुभाग बंध होता है । ग्यारहवें और दसवें गुणस्थान में उक्त चारों कर्मों का बंध न करके वहां से गिरने के बाद जब पुनः उनका अजघन्य अनुभाग बंध होता है तब वह सादि है और जो जीव नौवें, दसवें आदि गुणस्थानों में कभी नहीं आये, उनकी अपेक्षा वह अजघन्य बंध अनादि है। अभव्य का बंध ध्रुव है और भव्य का बंध अध्रुव है। ___ अब घातिकर्मों के शेष तीन-जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंधों में होने वाले सादि और अध्रुव प्रकारों को स्पष्ट करते हैं । मोहनीय कर्म का जघन्य अनुभाग बंध क्षपक अनिवृत्तिबादर के अंतिम समय में और शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का क्षपक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में। यह बंध पहली बार ही होता है अतः सादि है और बारहवें गुणस्थान में जाने पर होता ही नहीं अतः अध्रुव है। यह अनादि नहीं है । क्योंकि उक्त गुणस्थानों में आने से पहले कभी नहीं होता है और अभव्य के नहीं होने से ध्रुव भी नहीं है । अनुत्कृष्ट के बाद उत्कृष्ट बंध होता है अतः सादि है और उसके एक या दो समय बाद पुनः अनुत्कृष्ट बंध होता है अतः उत्कृष्ट बंध अध्रुव है और अनुत्कृष्ट बंध सादि है । कम-से-कम अन्तमुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के बाद उत्कृष्ट संक्लेश होने पर पुनः उत्कृष्ट बंध होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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