________________
पंचम कर्मग्रन्थ
२६५
जिससे अनुत्कृष्ट बंध अध्रुव है । इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बंध बदलते रहने के कारण सादि और अध्रुव हैं ।
गोत्र कर्म में अजघन्य और अनुत्कृष्ट बंध चार प्रकार का और जघन्य और उत्कृष्ट बंध दो प्रकार का होता है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध के प्रकार वेदनीय और नाम कर्म के समान समझना चाहिये | अब जघन्य और अजघन्य बंध के बारे में विचार करते हैं कि सातवें नरक का नारक सम्यक्त्व के अभिमुख होता हुआ यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है तब अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है, जिससे मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग हो जाते हैं । एक नीचे की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति और दूसरी शेष ऊपर की स्थिति । नीचे की स्थिति का अनुभव करते हुए अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति के अन्तिम समय में नीच गोत्र की अपेक्षा से गोत्र कर्म का जघन्य अनुभाग बंध होता है । अन्य स्थान में यदि इतनी विशुद्धि हो तो उससे उच्च गोल का अजघन्य अनुभाग बंध होता है। सातवें नरक में मिथ्यात्व दशा में नीच गोत्र का ही बंध होने से उसका ग्रहण किया है तथा जो नारक मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व के अभिमुख नहीं, उसके नीच गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध और सम्यक्त्व प्राप्ति होने पर उच्च गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध होता है । नीच गोत्र का यह जघन्य अनुभाग बंध अन्यत्र सम्भव नहीं है और उसी अवस्था में पहली बार होने से सादि है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर वही जीव उच्च गोत्र की अपेक्षा से नीच गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध करता है अतः जघन्य अनुभाग बंध अध्रुव है और अजघन्य अनुभाग बंध सादि है । इससे पहले होनेवाला अजघन्य अनुभाग बंध अनादि है । अभव्य का अजघन्य बंध ध्रुव और भव्य का अध्रुव है । इस प्रकार गोत्र कर्म के जघन्य अनुभाग बंध के दो और अजघन्य अनुभाग बंध के चार विकल्प जानना
चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org